सोमवार, 28 दिसंबर 2020

बनारस से इश्क़।

जल्दबाजी, हड़बड़ी हमें हमसे अलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ता। मुझे मिला शहर से लगभग सबकुछ। डिग्री, दोस्त, और एक नई ज़िन्दगी। मेरे अन्दर बनारस शहर के रूप में नहीं इश्क़ के रूप में बसता है लेकिन 27 दिसंबर 2020 की तारीख को मैं अपने इश्क़ रूपी शहर में बिताए 4 वर्षों के बावजूद भी ज्ञात हुआ कि ये तो ऊपरी इश्क़ था लेकिन जब कल सुबह 3 बजे भोर मैं पहुँचा नदेसर से अस्सी की ओर तो मुझे ज्ञात हुआ कि अन्दर का बनारस तो छिपा था अब तक मेरे नज़रों से। इस बनारस को बनारस बनाने में कई ज़िंदगियाँ अपने रस को नीरस करते हैं। अस्सी के सुबह-ऐ-बनारस को 4 वर्ष के सफर के बाद पहली बार अपने नज़रों से  निहार सका । अब इस सफ़र को नई राह मिल गई। ऊपरी बनारस के इश्क़ बाद अब अन्दर के बनारस से इश्क़ हो गया मुझे।

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

यादों के पन्ने

मैं आज निकला था यादों के शहर में दौड़ लगाकर जल्द ही वापिस आने को। यादें ही तो हैं जो हमें प्रकाश की वेग से भी अधिक रफ़्तार में अपने इतिहास में तुरंत ले जा पटक देती हैं। तुम्हारे पास भी होंगी कई यादें। कुछ बचपन की नटखटी तो कुछ जवानी के झकझोर देने वाली। कभी तुम भी कुटाये होगे माँ के चप्पल से और कभी तुम भी गुज़रे होगे विरह की आग से।
कुछ यादें तन-मन को झकझोर देती हैं चाहे कितनी भी कोशिश कर लो लेकिन कुछ लम्हों में इनका पारदर्शी होना दुर्निवार (जिसे चाह कर भी न रोक पाओ) हो जाता है।
कितना पारदर्शी था न ,जब हम साथ थे, ये थोड़ी दूरियाँ क्या आईं कि हमारे बीच धुँधलापन समा गया।
आज अपने सारे सामानों को मैं देख रहा था, सोचा कि इनको कोई उचित स्थान दे दूँ अपने नए कमरे में। देखकर सारी यादें मुझे उस दोपहर में ले गई जब तुमने अपने हाथों से इसे समेटा था। बड़ी बारीकी से सजाया था न तुमने इस सामानों को और कहा था कि 'आपसे ये सब नहीं हो पायेगा, आप बस समान इकट्ठा करो मैं पैक कर देती हूँ।' बुद्धू! इसी नाम से पुकारा था न उस दिन!
हाँ मैं हूँ बुद्धू। अब समझ आने लगी चीजें, भाव, रिश्ते और उनके मोल। 
काश कि सब लौट आता! मुझे पता है कि अब ये मुमकिन नहीं है, अगर होता तो तुम कभी न दरकिनार होती। लेकिन ये जो आस होती है न वो एक और हिम्मत दे देती इंतज़ार करने को।
मुझे एक बात बहुत खरोंच रही है। क्या वाक़ई में मैं महज़ एक छलिया हूँ?
सब छलावा था?
इतना होशियार कोई कैसे हो सकता है?
मैं इतना बड़ा खिलाड़ी कैसे बन गया कि परमेश्वर द्वारा रचित जीवन के साथ खेलने में माहिर हो जाऊँ?

सच में अब यादों के शहर को छोड़ कर चला जाऊँगा मीलों दूर, जहाँ न अम्बर का साया हो न ही धरती की गुरुत्वाकर्षण।
क्या ही ज़रूरत है उन हिस्सों को प्रकट करना जो सिर्फ मेरा न होकर तुमसे भी साझा होती हो।

"साझा दुखों की सबसे क्रूर बात यही है, कोई एक जी भरकर रो भी नहीं सकता।"

मैं सबकुछ खुद में ही समेट लेना चाहता हूँ और एक लम्बी यात्रा को निकल जाना चाहता हूँ। शायद वहाँ तक जहाँ सिर्फ मुसाफिरों के लिए जगह हो, कोई यात्री आस-पास भी न भटके।

हम समय को नहीं रोक सकते और न ही वापिस ले जा सकते हैं। अगर ऐसा संभव होता तो मैं वापिस तुम्हारे अंदर के शहर में ज़रूर एक कमरा बसाता, लेकिन इस बार वो किराए का नहीं होता और न ही मैं भटकता मुसाफ़िर होता। बस ख़ुद को कैद रखता उस शहर के गलीचों में।

"किसी शहर में एकदम मन भरने तक नहीं रुकना चाहिए, न ही एक बार में सब देख-समझ लेना चाहिए। सुंदर शहरों में बार-बार लौटकर आ सकने की वज़ह हर बार बचाकर ले आनी चाहिए अपने साथ…"

अगर जो सम्भव हो पाया तुम्हारे शहर में लौट आना, मुझे मिल जाए नागरिकता वहाँ की तो मैं इस बार अपना बस्ता भी साथ नहीं लाऊँगा। वीरान रखूँगा अपने कमरे को ताकि जब भी तुम भटकते यहाँ पहुँचो तो सजा दो इन्हें अपने मखमली हाथों से। न ही कोई आस लेकर और ही कोई ख़ास लेकर, मैं अकेला आऊँगा सिर्फ अपने आप को लेकर। सुना है बोझ जितना कम होता है सफ़र का मज़ा उतना अधिक आता है।

"अकेले यात्रा करने में सबसे बड़ी सरलता यही है कि हम जब जैसा चाहें, जितना चाहें उतना एकांत अपने लिए बचा सकते हैं।"
इंतज़ार है उस शहर के बुलावे का, जहाँ के पतझड़ भी यहाँ के वसन्त से हसीन होते हैं।

"तुम्हारा कृष्णा"
#KkpBanaRas

मंगलवार, 22 दिसंबर 2020

प्यार

जो ख़ुद अधूरा होकर जीवन को पूरा करता है, वही है प्यार। वैसे प्यार के बारे में कई सारे मतों को सुना है। कुछ का मानना है कि प्यार एक ही बार होता है तो कुछ का मानना है कि प्यार दोबारा भी हो सकता है। बड़े असमंजस के बाद मैंने फ़ैसला किया अपने अतीत के पन्नों को पलटने का। मुझे ज्ञात हुआ कि प्यार तो आदि से शुरू होकर अनन्त तक चलने वाली अर्थात सर्वत्र विराजमान रहने वाली काया है,जिसे चाह कर भी हटाया नहीं जा सकता और न ही बनाया जा सकता। वो विज्ञान में कहते हैं न कि " energy can't be created nor be destroyed." ठीक उसी तरह है प्यार। मैं किसी मत का कटाक्ष नहीं करता और न ही मेरी हैसियत है उतनी, लेकिन अपने अनुभव को साझा करते हुए मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि जिस केंद्र बिन्दु से हमें आत्म संतुष्टि और आत्म प्रेम की भावना मिलती है वहीं प्यार है। प्यार एक बार नहीं हज़ार नहीं लाख नहीं वरन अनन्त तक होते रहने वाली दशा है। अब देख लो आजकल मोबाइल नामक यंत्र से मन को बहुत संतुष्टि मिलती है। क्या अपने मोबाइल को दूसरों के पास देखना चाहते हो? कितनी हिफाज़त करते हो न! शायद ख़ुद से भी अधिक। इसीलिए मुझे यह कहने में थोड़ी-सी भी झिझक न हुई और मैंने अपने मन की बात उढेल दी। ख़ैर मुझे भी बहुत प्यार है अपने परिवार से, अपने मोबाइल से, अपने दद्दा से; (जो कि मुझसे 2 साल पहले मिले थे लेकिन सम्बन्ध ऐसा मानो सदियों से नाता हो हमारा), अपने आप से और हाँ तुमसे। बेपनाह मोहब्बत है, मैं कभी-कभी सोचता हूँ कि तुम, तुम और तुम न होते तो मेरा क्या होता? इस जहान में मैं कभी आत्म संतुष्टि न पाता। ख़ैरियत है कि तुम,तुम और तुम मेरे जीवन में हो प्यार बनकर। बहुत प्यार करता है तुमसे तुम्हारा कृष्णा। सिर्फ और सिर्फ तुम्हारा कृष्णा।

#KkpBanaRas 

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

तुम्हारी यादों का शहर

तुम्हारे शहर की बात ही अलग है। कितना भरा है न भीड़ से! एकदम लबालब। कहीं ट्रैफिक की आवाज़ तो कहीं अलहड़पन का शोर। बहुत रौनक है इस शहर में लेकिन सब सूना लगता है जब साथ तुम न हो। वो दुकानें, वो मॉल, वो घाट आज भी वैसा ही था लेकिन खिलखिलाहट नहीं मिली कहीं वैसी जैसी तुम्हारे साथ घूमने पर मिला करती है। भला हो भी कैसे? सब तो तुम्हें मेरे साथ देखकर ही मुस्कराते थे न! पता है चाचा के गोलगप्पे खिलाने के अंदाज़ भी आज अलग ही था, उनको पता है कि मुझे मूली पसन्द नहीं फिर भी मुझे अकेला देखकर उन्होंने मुझे मूली दे दी, मैंने मना भी नहीं किया आज, शायद उनको अन्दाज़ा ही न हुआ होगा कि मैं वही हूँ जो रोज तुम्हारे साथ खिलखिलाते हुए गोलगप्पे खाया करता था या शायद मेरी पहचान सिर्फ तुम हो, जिसके न होने से सब मुझसे रूठे से थे। अब भला दरख़्त से अलग हुए पत्ते को कौन पसन्द ही करता है? शायद ख़ुद दरख़्त भी नहीं! मैंने सबको वादा किया है उस खिलखलाहट को लौटाने को। क्या सच में इतना इत्मिनान है एक दिन बिना तुम्हारे? मुझे ये इत्मिनान क़तई बर्दास्त नहीं। मुझे तो वो सुकून चाहिए जो सच में वरुणा को अस्सी से मिलाकर बनारस बना दे। बिना बनारस के ये दोनों नदियाँ नाले में तब्दील हो गई हैं। मेरे साहित्य का श्रृंगार, करुण और वात्सल्य का समागम तो तुम ही हो, फिर क्यों कहीं और भटकते रहना है। वैसे हमारे बीच कोई रिक्ति नहीं जहाँ कुछ समाहित हो सके लेकिन प्रेम रूपी डोर को जगह की कहाँ ज़रूरत? ये तो उस फेवी क्विक की तरह है जो जोड़कर रखती तो है पर दिखाई नहीं देती। बताओ न तुम मैं सच कह रहा हूँ न! अच्छा ये बताओ आज का दिन कैसा रहा तुम्हारा? क्या तुम्हारी गलियाँ भी ढूँढ रही थी मुझे? क्या तुम्हारा फोन भी बेताब था मेरी आवाज़ को सुनने को? बहुत परेशान थी न! मैं भी था। तुम्हारी जो मेरे लिए परवाह है न ये मुझे बहुत तड़पाती है और  प्रेम तो फड़फड़ाहट को और गति दे ही देता है। मैं चाहता हूँ बेपरवाह रहो तुम बिल्कुल अल्हड़ मिज़ाजी। ठीक वैसे ही जैसा तुम्हारा शहर है। चलो मुझे मेरी पसन्दीदा झप्पी दो। बाएँ हाथ को दाएँ कन्धे पर और दाएँ हाथ को बाएँ कन्धे पर रखकर टाइट वाली झप्पी। सुनो! प्रेम में मैं स्वार्थी हो गया हूँ इसलिए सिर्फ अपना ख़्याल रखो सिर्फ मेरे लिए। जल्द ही हमारी मुलाक़ात होगी। "बशीर बद्र " की वो पँक्तियाँ सुनी होगी तुमने। "मुसाफिर हैं हम, मुसाफिर हो तुम। एक मोड़ पर फिर मुलाक़ात होगी"।

#KkpBanaRas

डिअर दिसंबर

ये दिसंबर तो अब तलक रुका है तुमने ही साथ छोड़ दिया! शायद प्रेम का ताल सूख गया होगा पर वक़्त से पहले कैसे? हो सकता है अश्रुओं के ताल मौसमी रिवा...