शुक्रवार, 25 दिसंबर 2020

यादों के पन्ने

मैं आज निकला था यादों के शहर में दौड़ लगाकर जल्द ही वापिस आने को। यादें ही तो हैं जो हमें प्रकाश की वेग से भी अधिक रफ़्तार में अपने इतिहास में तुरंत ले जा पटक देती हैं। तुम्हारे पास भी होंगी कई यादें। कुछ बचपन की नटखटी तो कुछ जवानी के झकझोर देने वाली। कभी तुम भी कुटाये होगे माँ के चप्पल से और कभी तुम भी गुज़रे होगे विरह की आग से।
कुछ यादें तन-मन को झकझोर देती हैं चाहे कितनी भी कोशिश कर लो लेकिन कुछ लम्हों में इनका पारदर्शी होना दुर्निवार (जिसे चाह कर भी न रोक पाओ) हो जाता है।
कितना पारदर्शी था न ,जब हम साथ थे, ये थोड़ी दूरियाँ क्या आईं कि हमारे बीच धुँधलापन समा गया।
आज अपने सारे सामानों को मैं देख रहा था, सोचा कि इनको कोई उचित स्थान दे दूँ अपने नए कमरे में। देखकर सारी यादें मुझे उस दोपहर में ले गई जब तुमने अपने हाथों से इसे समेटा था। बड़ी बारीकी से सजाया था न तुमने इस सामानों को और कहा था कि 'आपसे ये सब नहीं हो पायेगा, आप बस समान इकट्ठा करो मैं पैक कर देती हूँ।' बुद्धू! इसी नाम से पुकारा था न उस दिन!
हाँ मैं हूँ बुद्धू। अब समझ आने लगी चीजें, भाव, रिश्ते और उनके मोल। 
काश कि सब लौट आता! मुझे पता है कि अब ये मुमकिन नहीं है, अगर होता तो तुम कभी न दरकिनार होती। लेकिन ये जो आस होती है न वो एक और हिम्मत दे देती इंतज़ार करने को।
मुझे एक बात बहुत खरोंच रही है। क्या वाक़ई में मैं महज़ एक छलिया हूँ?
सब छलावा था?
इतना होशियार कोई कैसे हो सकता है?
मैं इतना बड़ा खिलाड़ी कैसे बन गया कि परमेश्वर द्वारा रचित जीवन के साथ खेलने में माहिर हो जाऊँ?

सच में अब यादों के शहर को छोड़ कर चला जाऊँगा मीलों दूर, जहाँ न अम्बर का साया हो न ही धरती की गुरुत्वाकर्षण।
क्या ही ज़रूरत है उन हिस्सों को प्रकट करना जो सिर्फ मेरा न होकर तुमसे भी साझा होती हो।

"साझा दुखों की सबसे क्रूर बात यही है, कोई एक जी भरकर रो भी नहीं सकता।"

मैं सबकुछ खुद में ही समेट लेना चाहता हूँ और एक लम्बी यात्रा को निकल जाना चाहता हूँ। शायद वहाँ तक जहाँ सिर्फ मुसाफिरों के लिए जगह हो, कोई यात्री आस-पास भी न भटके।

हम समय को नहीं रोक सकते और न ही वापिस ले जा सकते हैं। अगर ऐसा संभव होता तो मैं वापिस तुम्हारे अंदर के शहर में ज़रूर एक कमरा बसाता, लेकिन इस बार वो किराए का नहीं होता और न ही मैं भटकता मुसाफ़िर होता। बस ख़ुद को कैद रखता उस शहर के गलीचों में।

"किसी शहर में एकदम मन भरने तक नहीं रुकना चाहिए, न ही एक बार में सब देख-समझ लेना चाहिए। सुंदर शहरों में बार-बार लौटकर आ सकने की वज़ह हर बार बचाकर ले आनी चाहिए अपने साथ…"

अगर जो सम्भव हो पाया तुम्हारे शहर में लौट आना, मुझे मिल जाए नागरिकता वहाँ की तो मैं इस बार अपना बस्ता भी साथ नहीं लाऊँगा। वीरान रखूँगा अपने कमरे को ताकि जब भी तुम भटकते यहाँ पहुँचो तो सजा दो इन्हें अपने मखमली हाथों से। न ही कोई आस लेकर और ही कोई ख़ास लेकर, मैं अकेला आऊँगा सिर्फ अपने आप को लेकर। सुना है बोझ जितना कम होता है सफ़र का मज़ा उतना अधिक आता है।

"अकेले यात्रा करने में सबसे बड़ी सरलता यही है कि हम जब जैसा चाहें, जितना चाहें उतना एकांत अपने लिए बचा सकते हैं।"
इंतज़ार है उस शहर के बुलावे का, जहाँ के पतझड़ भी यहाँ के वसन्त से हसीन होते हैं।

"तुम्हारा कृष्णा"
#KkpBanaRas

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