बुधवार, 21 अप्रैल 2021

रिश्तों से दूर होकर ज़िन्दा हूँ, सो मुजरिम हूँ।

रिश्तों से दूर होकर ज़िन्दा हूँ, सो मुजरिम हूँ।
काश! उसके लिए जीता, अपने लिए मर जाता।

कल सामने मंज़िल थी, पीछे मेरी आवाज़ें।
चलता तो तुमसे बिछड़ जाता,
रुकता तो मेरा सफ़र छूट जाता।

मैं नज़रबंद गलियों मुस्कुरा रहा था,
बिन मंज़िल पर सफ़र तो किए जा रहा था।

उन गलियों में ख़ुश भले न था 'कृष्णा' , था तो सही!
काश वहीं होता! , एक शाम तो बचा लेता!
एक शाम तो बचा लेता, एक रोज़ तो घर जाता!
'कृष्णा'

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

डिअर दिसंबर

ये दिसंबर तो अब तलक रुका है तुमने ही साथ छोड़ दिया! शायद प्रेम का ताल सूख गया होगा पर वक़्त से पहले कैसे? हो सकता है अश्रुओं के ताल मौसमी रिवा...