गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

बनारस love

"पल हर पल मुझे झकझोरे रखता है, मेरे साथ मेरा कलम भी जीता है।"
नवम्बर की शाम वाली ठण्ड में रेलवे स्टेशन के वेटिंग रूम में लगी कुर्सियाँ रेलगाड़ी की प्रतीक्षा को सहज बनाने में कारगर लग रही थीं। आदतन मोबाइल उठाया और व्हाट्सएप्प किया "मैं आज ही वापिस बनारस आ रहा हूँ।
हालाँकि मैं वहाँ पहुँच कर उससे अचानक मिलना चाहता था।

"अचानक से मिलने वाली खुशियाँ हमारे अंदर के मुस्कान को बाहर निःस्वार्थ रूप से ले आती है।"

रिप्लाई में एक इमोजी आया 🤗। वो जो उस पार से मुझे हर बात पर अपने इमोजी भेज रही थी उसका चेहरा भी एकदम से मुस्काता हुआ इमोजी जैसा ही है। हम दोनों के नाम के अक्षर भले ही बराबर हैं लेकिन करतूत एकदम विपरीत। वो ठहरी एकदम उपद्रवी और मैं एकदम शान्त। कई बार तो जब मैं कुछ सोच रहा होता हूँ तो अचानक कान में फूँक के भाग जाती है और भौंह चढ़ा कर डराओ तो मासूम बच्चे की तरह मुँह बना के खड़ी हो जाती। अब भला कौन ही डाँटे!

सर्दियों में ट्रेनों की चाल में सुस्ती से गुस्सा तो आ ही रहा था लेकिन ये सोच कर भी निश्चिन्त था कि उतनी सुबह ठण्ड में पहुँच कर करूँगा भी क्या?

"पता नहीं अक्सर क्यों ऐसा होता है कि हमें किसी चीज़ का बेसब्री से इंतजार हो तो समय ख़ुद को और विस्तार कर लेती है।"
इस सिकुड़ा देने वाले ठंड में सुकून तो सफ़र खत्म होने के बाद ही मिला। सफ़र के बाद कहना लाज़मी नहीं होगा क्योंकि उससे मिलना, उसमें मिल जाने जैसा था। हफ़्तों बाद के दीदार में मानो स्वयं महादेव के जटा में गँगा आकर लिपट गई हो,कुछ ऐसा प्रतीत हुआ। मैं इन सब में खोया ही था कि उसने भर लिया आलिंगन में।
बस एक शहर को उसके बाशिन्दे से ज्यादा और क्या चाहिए?
मैं चाह कर भी उसे नहीं बता पाता कि तुम अब तुम नहीं रही हो मेरे जीवन में, हम हो चुके हैं। मुझे पता है कि उसे मेरे सारे एहसासों की ख़बर है लेकिन ये शब्दों के जाल फेंकने में मैं कैसे असमर्थ हो गया ये सोचने वाली बात है।
शब्दों की सीमा को देखते हुए मैं ये कहना चाहूँगा कि दूरियाँ ख़त्म हो जाएँगी बस ख़ुद को बनारसी और अपने इश्क़ को बनारस की संज्ञा दो तो।
#KkpBanaRas

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