शनिवार, 25 सितंबर 2021

बचपन की साइंस

बचपन की साइंस और बाद को जियोग्राफी न पढ़ा होता तो बेशक़ आज कहता कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर नहीं घूम रही है।
दरअसल काले अक्षरों से परे भी एक दुनिया है जो अनुमान से चला करती है, उसमें न ही सेकण्ड के काँटे होते हैं और न ही भागदौड़।
ये इत्मिनान से चलने वाली दुनिया है।
इसे मैं अलग दुनिया की संज्ञा इसलिए देना चाहता हूँ क्योंकि मेरा संज्ञान मुझे अपडेट नहीं कर पा रहा कि कोई ऐसी जगह बची होगी जहाँ सूरज उगने से पूर्व दिन की शुरुआत और ढलते मंझते ही रात। यहाँ शाम भी नहीं हुआ करती।
इस गोले पर भी ये दुनिया हुआ करती थी, शायद तब, जब हम पेड़ों से घिरे होते थे टावरों और मीनारों से नहीं।

आज जब-भी घर से कदम बाहर निकालो तो लगता है वे दुनिया कहाँ सुबह से शाम तक तो हम ही घूम रहे हैं, जल रहे हैं, तप रहे हैं। इस तरह कि मानो किसी सूर्य के चारों को हम चक्कर लगा रहे हों।
लेकिन करें भी तो क्या? पहले तो बचपन के साइंस ने फिर बाद के जियोग्राफी ने इस क़दर ज्ञान दिया कि हम स्थिर और दुनिया ही घूमने लगी।

मुझे लगता है कभी-कभी फुरसत वाली दुनिया को भी समय दे देना चाहिए, कभी सटीकता को छोड़ अनुमान को एकटक निहार लेना चाहिए।
'कृष्णा'

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