कुम्हार माटी को सानकर भी कुम्हार न कहलाता काश!
ज़मीन के टुकड़े अपनों के टुकड़े न करते काश!
विश्वास को शब्द महज़ न कहते मन ही सब समझता काश!
प्रेम को ढोंग और ढोंगी को प्रेमी वो न समझता काश!
रक्त को द्रव, धन को हिसाब न समझते काश!
चलो माना! मैं ढोंगी हूँ, तुम यूँही रहो निःस्वार्थ।
'कृष्णा'
उत्तम
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